कम से कम ये कुण्ड तालाब तो नही है !
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बुंदेलखंड क्षेत्र के कुलपहाड़ कस्बे के देहाती क्षेत्र की पंचयात है-इनौरा। पिछले दिनों कुछ अफसर व एनजीओ वाले उनके यहां आए, वन विभाग की जमीन पर बने पुराने तालाब पर एक घंटे पोकलैंड मशीन चलाई, दूसरे तालाब पर एक घंटे में पत्थर लगवाए, फोटो खिंचवाए और चले गए। ग्राम सरपंच वीरेन्द्र यादव (भान सिंह का खुड़ा) उनसे कहते रहे कि इसमें पानी नहीं टिकेगा क्योंकि इसके निचले हिस्से को खुला छोड़ दिया है, पर किसी ने सुनी नहीं। एक जुलाई को पानी बरसा तो उसमें पानी तो ठहरा नहीं, दूसरी तरफ वहां से निकली पानी की धार ने ढेर सारी जमीन काट और दी। सरचंप श्री यादव दुखी हैं कि यह योजना तालाब बचाने से यादा फोटो खिंचाने की है। हाल ही में सेंटर फार साइंस एंड इनवायरमेंट (सीएसई) ने बुंदेलखंड के सूखे पर झांसी में एक सेमीनार और अगले दिन महोबा और बांदा जिले के कुछ ऐसे इलाकों के भ्रमण का अयोजन किया, जहां तालाब खेत बनाए जा रहे हैं। इस आयोजन में राजस्थान के लापोडिया में तालाब गढने वाले लक्ष्मण सिंह से ले कर मराठवाड़ा से ललित बाबर व पंडित वासरे, बुंदेलखंड से ही कई पानी-सहेजने वाले अनुभवी लोग शामिल हुए थे। झांसी से 225 किलोमीटर के रास्ते में यह देखना सुखद था कि सड़क के दोनों तरफ किसानों ने अपने खेतों में तालाब से निकली काली गाद को बिछा रखा था। सनद रहे इलाके के कई बड़े तालबों की सफाई व गहराई का काम कहीं सरकार तो बहुत सी जगह आम लोग कर रहे हैं। पहली ही बारिश में उसका असर भी दिखा और जल-निधियां तर हो गईं।
एक दशक के दौरान कम से कम तीन बार उम्मीद से कम मेघ बरसना बुंदेलखंड की सदियों की परंपरा रही है। यहां के पारंपरिक कुएं, तालाब और पहाड़ कभी भी समाज को इं्रद्र की बेरूखी के सामने झुकने नहीं देते थे। जिन लोगों ने तालाब बचाए, वे प्यास व पलायन से निरापद रहे। अनेक विद्वानों ने भारत के विभिन्न क्षेत्रों में बनी जल संचय प्रणालियों का गहन अध्ययन कर उनका विवरण प्रस्तुत किया है। इस विवरण में जल संरचनाओं की विविधता के साथ-साथ उस क्षेत्र की जलवायु से उनका सह-संबंध प्रतिपादित होता है।
केंद्र सरकार के पिछले महीने आए बजट में यह बात सुखद है कि सरकार ने स्वीकार कर लिया कि देश की तरक्की के लिए गांव व खेत जरूरी हैं, दूसरा खेत के लिए पानी चाहिए व पानी के लिए बारिश की हर बूंद को सहेजने के पारंपरिक उपाय यादा कारगर हैं। तभी खेतों में पांच लाख तालाब खोदने व उसे मनरेगा के कार्य में शामिल करने का उल्लेख बजट में किया गया है। खेत में तालाब यानि किसान के अपने खेत के बीच उसके द्वारा बनाया गया तालाब, जिससे वह सिंचाई करे, अपने इलाके का भूजल स्तर को समृद्ध करे और तालाब में मछली, सिंघाड़ा आदि उगा कर कमाई बढ़ाए। ऐसा भी नहीं है कि यह कोई नया या अनूठी योजना है। इससे पहले मध्य प्रदेश में बलराम तालाब, और ऐसी ही कई योजनाएं व हाल ही में उ.प्र. के बुंदेलखंड के सूखाग्रस्त इलाके में कुछ लोग ऐसे प्रयोग कर रहे हैं। सरकारी सोच की तारीफ इसलिए जरूरी है कि यह तो माना कि बड़े बांध के व्यय, समय और नुकसान की तुलना में छोटी व स्थानीय सिंचाई इकाई यादा कारगर हैं।
सबसे बड़े सवाल खड़े हुए खेत-तालाब योजना पर। इस योजना में उत्तर प्रदेश सरकार कुल एक लाख पांच हजार का व्यय मान रही है और इसका आधा सरकार जमा करती है, जबकि आधा किसान वहन करता है। असल में इस येाजना को जब राय सरकार के अफसरों ने कुछ एनजीओं के साथ मिलकर तैयार किया था तो उसमें मशीनों से काम करवाने का प्रावधान नहीं था। यह खुदाई इंसान द्वारा की जानी थी, सो इसका अनुमानित व्यय एक लाख रखा गया था। बाद में पलायन के कारण यहां मजूदर मिले नहीं, लक्ष्य को पूरा करना था, सो आधे से भी कम व्यय में मशीने लगा कर कुंड खोदे गए। यही नहीं इसके लिए किसान को पंजीकरण उप्र सरकार के कृषि विभाग के पोर्टल पर ऑनलाइन करना होता है। कहने की जरूरत नहीं कि यह किसान के लिए संभव नहीं है। और यहीं से बिचौलियों की भूमिका शुरू हो जाती है।
हालांकि यह भी सही है कि जो संरचना तैयार की गई है, उसे तालाब तो नहीं कहा जा सकता। यह कुंड है जो कि चार मीटर गहरा है और उसकी लंबाई चौड़ाई 30 गुणा 25 मीटर लगभग हैं। यह पूरा काम पानी की आवक या निकासी के गणित को सोचे बगैर पोकलैंड मशीनों से करवाया जाता है और इसका असल खर्च सरकारी अनुदान से भी कम होता हैं।
तालाब की सीधी चार मीटर की गहराई में कोई मवेशी तो नीचे उतर कर पानी पी नहीं सकता। इंसान का भी वहां तक पुहंचना खतरे से खाली नहीं हैं। फिर यहां की पीली मिट्टी, जो कि धीरे-धीरे पानी को सोखती हैं व गहराई से दलदल का निर्माण करती है। लापोरिया, राजस्थान में कई तालाब बनाने वाले लक्ष्मण सिंह का स्वयं कहना है कि इस तरह की संरचना को तालाब तो नहीं ही कह सकते हैं। इस तरह की आकृति भले ही तात्कालिक रूप से जमीन की नमी बनाए रखने या सिंचाई में काम आए, लेकिन इसकी आयु यादा नहीं होती।
इसमें कोई शक नहीं कि नए तालाब जरूर बनें, लेकिन आखिर पुराने तालाबों को जिंदा करने से क्यांे बचा जा रहा है? लेकिन तालाब के नाम पर महज गड्ढे खोदना इसका विकल्प नहीं है। तालाब गांव की लेाक भावना का प्रतीक हैं यानि सामूहिक, सामुदायिक, जबकि खेतों में खुदे कुंड निजी। उसमें भी पैसे वाले किसान जो कि 52 हजार जेब में रखता हो, उन्हीं के लिए। ऐसे खेत तालाब तात्कालिक रूप से तो उपयेागी हो सकते हैं, लेकिन दूरगामी सोच तो यही होगी कि मद्रास रेसीडेंसी के ‘ऐरी तालाब प्रणाली’’ के अनुरूप सार्वजनिक तालाबों को संरक्षित किया जाए व उसका प्रबंधन समाज को सौंपा जाए।
चाहे कालाहांडी हो या बुंदेलखंड या फिर तेलंगाना; देश के जल-संकट वाले सभी इलाकों की कहानी एक ही है। इन सभी इलाकों में एक सदी पहले तक कई-कई सौ बेहतरीन तालाब होते थे। यहां के तालाब केवल लोगों की प्यास ही नहीं बुझाते थे, यहां की अर्थ व्यवस्था का मूल आधार भी होते थे। तालाब महज पानी सहेजने का जरिया नहीं होते, उका पूरा एक पर्यावणीय तंत्र होता है। जो पंक्षी, मछली, पेड़, गाद, समाज को एक-दूसरे पर निर्भर रहने का संदेश देता है। जबकि खेत में बनाए गए कुंड दिखावे या तात्कालिक जरूरत की पूर्ति के लिए हैं। पुराने तालाब मछली, कमल गट्टा , सिंघाड़ा, कुम्हार के लिए चिकनी मिट्टी ; यहां के हजारों-हजार घरों के लिए खाना उगाहते रहे हैं। तालाबों का पानी यहां के कुओं का जल स्तर बनाए रखने में सहायक होते थे। शहरीकरण की चपेट में लोग तालाबों को ही पी गए और अब उनके पास पीने के लिए कुछ नहीं बचा है।
काश किसी बड़े बांध पर हो रहे समूचे व्यय के बराबर राशि एक बार एक साल विशेष अभियान चला कर पूरे देश के पारंपरिक तालाबों की गाद हटाने, अतिक्रमण मुक्त बनाने में खर्च कर दिया जाए तो भले ही कितनी भी कम बारिश हो, ना तो देश का कोई कंठ सूखा रहेगा और ना ही जमीन की नमी मारी जाएगी।
कम से कम यह तालाब तो नहीं है साभार - पंकज चतुर्वेदी जी के ब्लाग से प्रस्तुत
दैनिक जागरण 5-7-16 |
एक दशक के दौरान कम से कम तीन बार उम्मीद से कम मेघ बरसना बुंदेलखंड की सदियों की परंपरा रही है। यहां के पारंपरिक कुएं, तालाब और पहाड़ कभी भी समाज को इं्रद्र की बेरूखी के सामने झुकने नहीं देते थे। जिन लोगों ने तालाब बचाए, वे प्यास व पलायन से निरापद रहे। अनेक विद्वानों ने भारत के विभिन्न क्षेत्रों में बनी जल संचय प्रणालियों का गहन अध्ययन कर उनका विवरण प्रस्तुत किया है। इस विवरण में जल संरचनाओं की विविधता के साथ-साथ उस क्षेत्र की जलवायु से उनका सह-संबंध प्रतिपादित होता है।
केंद्र सरकार के पिछले महीने आए बजट में यह बात सुखद है कि सरकार ने स्वीकार कर लिया कि देश की तरक्की के लिए गांव व खेत जरूरी हैं, दूसरा खेत के लिए पानी चाहिए व पानी के लिए बारिश की हर बूंद को सहेजने के पारंपरिक उपाय यादा कारगर हैं। तभी खेतों में पांच लाख तालाब खोदने व उसे मनरेगा के कार्य में शामिल करने का उल्लेख बजट में किया गया है। खेत में तालाब यानि किसान के अपने खेत के बीच उसके द्वारा बनाया गया तालाब, जिससे वह सिंचाई करे, अपने इलाके का भूजल स्तर को समृद्ध करे और तालाब में मछली, सिंघाड़ा आदि उगा कर कमाई बढ़ाए। ऐसा भी नहीं है कि यह कोई नया या अनूठी योजना है। इससे पहले मध्य प्रदेश में बलराम तालाब, और ऐसी ही कई योजनाएं व हाल ही में उ.प्र. के बुंदेलखंड के सूखाग्रस्त इलाके में कुछ लोग ऐसे प्रयोग कर रहे हैं। सरकारी सोच की तारीफ इसलिए जरूरी है कि यह तो माना कि बड़े बांध के व्यय, समय और नुकसान की तुलना में छोटी व स्थानीय सिंचाई इकाई यादा कारगर हैं।
सबसे बड़े सवाल खड़े हुए खेत-तालाब योजना पर। इस योजना में उत्तर प्रदेश सरकार कुल एक लाख पांच हजार का व्यय मान रही है और इसका आधा सरकार जमा करती है, जबकि आधा किसान वहन करता है। असल में इस येाजना को जब राय सरकार के अफसरों ने कुछ एनजीओं के साथ मिलकर तैयार किया था तो उसमें मशीनों से काम करवाने का प्रावधान नहीं था। यह खुदाई इंसान द्वारा की जानी थी, सो इसका अनुमानित व्यय एक लाख रखा गया था। बाद में पलायन के कारण यहां मजूदर मिले नहीं, लक्ष्य को पूरा करना था, सो आधे से भी कम व्यय में मशीने लगा कर कुंड खोदे गए। यही नहीं इसके लिए किसान को पंजीकरण उप्र सरकार के कृषि विभाग के पोर्टल पर ऑनलाइन करना होता है। कहने की जरूरत नहीं कि यह किसान के लिए संभव नहीं है। और यहीं से बिचौलियों की भूमिका शुरू हो जाती है।
हालांकि यह भी सही है कि जो संरचना तैयार की गई है, उसे तालाब तो नहीं कहा जा सकता। यह कुंड है जो कि चार मीटर गहरा है और उसकी लंबाई चौड़ाई 30 गुणा 25 मीटर लगभग हैं। यह पूरा काम पानी की आवक या निकासी के गणित को सोचे बगैर पोकलैंड मशीनों से करवाया जाता है और इसका असल खर्च सरकारी अनुदान से भी कम होता हैं।
तालाब की सीधी चार मीटर की गहराई में कोई मवेशी तो नीचे उतर कर पानी पी नहीं सकता। इंसान का भी वहां तक पुहंचना खतरे से खाली नहीं हैं। फिर यहां की पीली मिट्टी, जो कि धीरे-धीरे पानी को सोखती हैं व गहराई से दलदल का निर्माण करती है। लापोरिया, राजस्थान में कई तालाब बनाने वाले लक्ष्मण सिंह का स्वयं कहना है कि इस तरह की संरचना को तालाब तो नहीं ही कह सकते हैं। इस तरह की आकृति भले ही तात्कालिक रूप से जमीन की नमी बनाए रखने या सिंचाई में काम आए, लेकिन इसकी आयु यादा नहीं होती।
इसमें कोई शक नहीं कि नए तालाब जरूर बनें, लेकिन आखिर पुराने तालाबों को जिंदा करने से क्यांे बचा जा रहा है? लेकिन तालाब के नाम पर महज गड्ढे खोदना इसका विकल्प नहीं है। तालाब गांव की लेाक भावना का प्रतीक हैं यानि सामूहिक, सामुदायिक, जबकि खेतों में खुदे कुंड निजी। उसमें भी पैसे वाले किसान जो कि 52 हजार जेब में रखता हो, उन्हीं के लिए। ऐसे खेत तालाब तात्कालिक रूप से तो उपयेागी हो सकते हैं, लेकिन दूरगामी सोच तो यही होगी कि मद्रास रेसीडेंसी के ‘ऐरी तालाब प्रणाली’’ के अनुरूप सार्वजनिक तालाबों को संरक्षित किया जाए व उसका प्रबंधन समाज को सौंपा जाए।
चाहे कालाहांडी हो या बुंदेलखंड या फिर तेलंगाना; देश के जल-संकट वाले सभी इलाकों की कहानी एक ही है। इन सभी इलाकों में एक सदी पहले तक कई-कई सौ बेहतरीन तालाब होते थे। यहां के तालाब केवल लोगों की प्यास ही नहीं बुझाते थे, यहां की अर्थ व्यवस्था का मूल आधार भी होते थे। तालाब महज पानी सहेजने का जरिया नहीं होते, उका पूरा एक पर्यावणीय तंत्र होता है। जो पंक्षी, मछली, पेड़, गाद, समाज को एक-दूसरे पर निर्भर रहने का संदेश देता है। जबकि खेत में बनाए गए कुंड दिखावे या तात्कालिक जरूरत की पूर्ति के लिए हैं। पुराने तालाब मछली, कमल गट्टा , सिंघाड़ा, कुम्हार के लिए चिकनी मिट्टी ; यहां के हजारों-हजार घरों के लिए खाना उगाहते रहे हैं। तालाबों का पानी यहां के कुओं का जल स्तर बनाए रखने में सहायक होते थे। शहरीकरण की चपेट में लोग तालाबों को ही पी गए और अब उनके पास पीने के लिए कुछ नहीं बचा है।
काश किसी बड़े बांध पर हो रहे समूचे व्यय के बराबर राशि एक बार एक साल विशेष अभियान चला कर पूरे देश के पारंपरिक तालाबों की गाद हटाने, अतिक्रमण मुक्त बनाने में खर्च कर दिया जाए तो भले ही कितनी भी कम बारिश हो, ना तो देश का कोई कंठ सूखा रहेगा और ना ही जमीन की नमी मारी जाएगी।
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