आंदोलन से सरकार तक आम आदमी
ये अवाम का सिनेमा भी है और प्रतिरोध की संस्कृति भी
समाज का एक खाश वर्ग जो आज भी अपनी आवाज , इक्षा और प्रतिरोध को मुखर न कर पाने के मलाल में जी रहा है वो कुंठित न हो तो क्या करे ? आप इसको उसके सपनो का मर जाना समझे या उसकी सोच के साथ वर्तमान सत्ता लोलुप इलीट क्लास भीड़ का न चल पाना माने दोनों ही तस्वीर में ये प्रतिरोध की संस्कृति ही है जो तेजी के साथ बुनयादी सवाल लिए खड़ी हो रही है। सोशल मीडिया में देखे या सड़क से उठे संसद के मध्य प्रतिरोध की ध्वनि में दोनों ही पहलू में विद्रोह का ये लिबास हिजाब को उतारते हुए ही नजर आयेगा । कुछ इन्ही झंझावातो को समेटता हुआ आम आदमी का आन्दोलन इस देश में नजर आया लेकिन वो कितना मुकम्मल होगा अपने परिवर्तन के पायदान में ये तो समय की गर्त में है। इस प्रतिरोध की विचार शीलता को सेलिब्रेटी के मायाजाल और अवसरवादी बिसात से बचना होगा। फिलहाल आइये उसके एक छोटे से स्मरण की तरफ ले चलता हूँ ।
9 अप्रैल 2011 को दिल्ली के रामलीला मैदान में आम आदमी के आंदोलन को पूर्व केंद्र सरकार के आश्वासन पर खत्म किया गया। देश की राजधानी में आजादी के बाद ये पहला आंदोलन था जिसमें हर वर्ग का आदमी बिना बुलाए शामिल हुआ। भ्रष्टाचार से आजिज देश का उबलता हुआ युवा खून कोने-कोने से निकलकर जंतर-मंतर से रामलीला तक इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगा रहा था। इस आंदोलन की पृष्ठभूमि में आज कई शिरे ऐसे हैं जो एकसाथ नहीं है, लेकिन उन्हें भुलाया नहीं जा सकता, क्योंकि सही उद्देश्य के लिए अच्छे और बुरे, छोटे-बड़े, वाद-अपवाद सबको दरकिनार कर लक्ष्य को पाना ही एक मात्र संकल्प होता है। भारतमाता के छाती में ईमानदारी के दूध को भ्रष्टाचार के गिद्ध ने अपने पान से नश-नश तक चूस कर विषैला कर दिया है। हांसिए पर खड़ा सुविधा से महरूम मजदूर -मजलूम तंत्र की तरफ आसरे की नजर से देख रहा है। इस आंदोलन की बुनियाद में कुछ ऐसे ही सपनों के ताने-बाने थे। आंदोलन के बाद से देश भर में जगह-जगह धरना-प्रदर्शन, सांकेतिक अनशन और जल उपवास किए गए जिसका असर बांदा में भी हुआ। 9 अप्रैल के बाद लगातार अन्ना हजारे से वैचारिक दूरियां बना चुके अरविंद केजरीवाल 17 अक्टूबर 2011 को बुंदेलखंड के बांदा के रामलीला मैदान में अपने साथी मनीष सिसोदिया, गोपाल राय, कुमार विश्वास, प्रदेश प्रभारी संजय सिंह, विभव कुमार सहित अन्य साथियों के साथ आए थे। बांदा का रामलीला मैदान उस वक्त तक टीम अन्ना के नाम से ही खचाखच भरा गया था। सबका एक ही सपना था कि जन लोकपाल से भ्रष्टाचार खत्म होगा। इससे कमतर कुछ भी मंजूर नहीं। 26 जनवरी 2013 को आम आदमी का आंदोलन एक राजनीतिक हस्तक्षेप के लिए पार्टी में तब्दील हो गया। जाहिर है व्यवस्था में घुसकर ही गंदगी को साफ किया जा सकता है। सिर्फ गाली देने से राजनैतिक सुधार की बातें करना बेमानी है। या तो हम व्यवस्था को सुधारें या फिर उस पर मलाल करना छोड़ दें। आम आदमी ने व्यवस्था में खड़े होकर अपने तरीके से, अपने साधनों के साथ एक नए तंत्र के गठन के लिए दिल्ली से कदम बढ़ाया। विधानसभा चुनाव 2013 में देश की राजधानी पर 28 सीटों के साथ तमाम आरोप-प्रत्यारोप झेलते हुए कांग्रेस के समर्थन से आम आदमी की सरकार बनी। महज 49 दिन की सरकार में दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल ने व्यवस्था को आइना दिखाने की कोशिश की। यह अलग बात है कि देश के मीडिया को मोदी नाम का फोबिया इस कदर डरा रहा था कि 49 दिन की सरकार में एक एक पल का हिसाब मांगा गया। लोकसभा चुनाव 2014 तक आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने पक्ष और विपक्ष, जनता के हर उस चक्रव्यूह को बर्दाश्त किया जो उसे रौंदने के लिए बनाए गए थे। नक्शली, अराजक, पागल, मानसिक विक्षिप्त और कजरीवाल जैसे शब्दों से सोशल मीडिया में गिरे स्तर की हद पार करते हुए हल्ला बोल आम आदमी पर किया गया। लोकसभा चुनाव में देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बनारस में अपने आत्म विश्वास पर घेरने वाले अरविंद केजरीवाल भले ही काशी की गंगा को पार नहीं कर पाए मगर दिल्ली की 49 दिन की सरकार अपने ही हाथों से गिराने के बाद लिए हुए सबक ने केजरीवाल को धीरे-धीरे राजनीति को नया खिलाड़ी बना दिया था। इस बात की तस्दीक धन पतियों के बल पर खड़ी हुई केंद्र की सरकार और देश के मीडिया को उस वक्त हुई जब कछुए की चाल से राजनीति में महज 2 साल पहले गुजरी झाडू ने एक बार फिर दिल्ली के विधानसभा चुनाव फरवरी 2015 में दिग्गजों को साफ करते हुए झाडू ही नहीं पोछा भी लगा दिया। हाल यह हुआ कि कभी अन्ना टीम की सिपाही रही किरण वेदी, साजिया इल्मी और वरिष्ठ कांग्रेस नेता अजय माकन अपनी जमानत तक नहीं बचा सके। 70 पर 67 सीटों के साथ प्रचंड बहुमत की सरकार ने आम आदमी को राजनीति के रियल नायक के रूप में अरविंद केजरीवाल दिया। इसकी सुगबुगाहट पंजाब और हरियाणा में होने लगी है। बस समय की रफ्तार के साथ झाडू को अपनी सींक गंदगी के लिए मजबूत करनी होंगी। आवश्यक यह भी है कि गैर सरकारी संगठनों की सेलीब्रेटी बन चुके कुछ राजनीतिक सोशल ऐजेंट से आम आदमी को सावधान रहने की जरूरत है। कहीं ऐसा न हो कि जो हश्र मतदाता ने दिल्ली में अन्य दलों का किया है, ये अवसरवादी चेहरे भूमि अधिग्रहण कानून को लेकर पदयात्रा के नाम पर निकले आंदोलन की आड़ में एक लंबे संघर्ष और राजनीतिक सफाई का पूर्ण विराम कर दें।
By: आशीष सागर
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