Tuesday, December 23, 2014

मोदी सरकार में भी किसानों की आत्महत्या का सिलसिला जारी और भी....

http://aajtak.intoday.in/story/farmers-are-suiciding-in-modi-government-also-1-792607.html
पियूष बबेले / संतोष पाठक इंडिया टुडे पत्रिका - 31 दिसम्बर अंक 

बुंदेलखंड के झांसी में किसान पिता-पुत्र आत्महत्या कर चुके हैं, उनकी जमीन पर हल चलाते रिश्तेदार
इसे कहानी कहें या त्रासदी, लेकिन है यह बुंदेलखंड इलाके के झांसी जिले की टहरौली तहसील के गढ़ीकर गांव की. चार साल पहले यहां के 70 वर्षीय किसान फूल सिंह ने सर्व यूपी ग्रामीण बैंक टहरौली से 80,000 रु. कर्ज लिया था. लेकिन जीते जी यह गरीब किसान कर्ज नहीं उतार पाया, तो शायद उसने सोचा कि जब जिंदगी ही नहीं रहेगी तो कर्ज भी नहीं रहेगा. दो साल पहले उसने खुदकुशी कर ली. लेकिन इससे कर्ज खत्म नहीं हुआ. उसके बेटों से बैंक का तकाजा शुरू हो गया. कर्ज के दबाव में उसके 35 साल के बेटे राजकुमार ने भी इस साल एक मई को खुदकुशी कर ली. लेकिन कर्ज ब्याज समेत बढ़ता रहा. बैंक के डर से राजकुमार के दो भाई जहेंद्र और गब्बर सिंह अब घर से दूर रहते हैं. घर पर बूढ़ी मां बची है जो पति और बेटे की मौत के बाद परिवार के तितर-बितर होने का गम पथराई आंखों में लिए फिरती है.

किसानों की आत्महत्याबांदा जिले के बिसंडा थाना क्षेत्र के शिवगांव का 45 वर्षीय किसान संतोष सिंह लाख कोशिशों के बावजूद सयानी होती 17 साल की बेटी अंकुला की शादी के लिए दहेज का इंतजाम नहीं कर पाया. उस पर पहले से ही इलाहाबाद बैंक का 80,000 रु. कर्ज था. इसके अलावा 1 लाख रु. का कर्ज गांव के साहूकार का भी था. दो साल पहले पांच बीघा जमीन को गिरवी रखकर उसने बड़ी बेटी रेनू की शादी के लिए यह कर्ज लिया था. रिश्तेदार तक उसे फूटी कौड़ी देने को राजी नहीं थे. इन दो बेटियों के अलावा उसकी 12 और आठ साल की दो और बेटियां भी थीं. मूंछों पर ताव और कंधे पर बंदूक के लिए मशहूर बांदा के इस किसान ने थक-हारकर वही रास्ता चुना जो इससे पहले तीन साल में इस गांव के 7 किसान अपना चुके थे- यानी खुदकुशी. और वे सारे बोझ, जिनसे डरकर संतोष दुनिया से चला गया था, आज उसकी बेवा कुसुमा को उठाने हैं. बुझे चूल्हे के पास बैठी अंकुला की सहमी आवाज सुनाई दी, ‘‘पापा मर गए, एक दिन ये पूरा गांव मरेगा.’’

2014 में किसानों की आत्महत्यादरअसल अंकुला ने जो कहा, वह एक बड़ी टीस की छोटी-सी सिसकी भर है. पिछली सरकार में 2010 में 7,266 करोड़ रु. का बहुचर्चित बुंदेलखंड सूखा राहत पैकेज हासिल करने के बावजूद बुंदेलखंड के गांवों में किसानों की आत्महत्या का सिलसिला खत्म ही नहीं हुआ. किसान आत्महत्या पर लंबे समय से काम कर रही बांदा की प्रवास सोसाइटी के संचालक आशीष सागर के मुताबिक 2001 से अब तक 4,175 किसान बुंदेलखंड के उत्तर प्रदेश वाले हिस्से के सात जिलों में आत्महत्या कर चुके हैं. और ऐक्शन एड के नवंबर, 2014 में आए सर्वे के मुताबिक 2014 में इन 7 जिलों में 109 किसानों ने आत्महत्या की है. हालांकि, केंद्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह को अभी 2014 के लिए बुंदेलखंड के आंकड़ों की जानकारी नहीं है. वैसे, महाराष्ट्र और तेलंगाना के बारे में वे खासे चिंतित हैं और देश में सिंचाई व्यवस्था की सूरत बदलना चाहते हैं.

महाराष्ट्र और तेलंगाना का रुख करने से पहले इतना और जान लें कि बुंदेलखंड में इस साल भारी बारिश और ओले गिरने से खरीफ की फसल चौपट हो गई. सरकारी आकलन में झंसी जिले में 2.53 लाख किसानों को 147 करोड़ रु. का नुक्सान हुआ. लेकिन अब तक सिर्फ 22 करोड़ की सहायता राशि ही पहुंची है. झांसी के जिलाधिकारी अनुराग यादव की दलील है, ‘‘बकाया 125 करोड़ रु. की मांग सरकार को भेज दी गई है, लेकिन धनराशि अभी तक जारी नहीं हुई है.’’ ललितपुर और जालौन जिलों में भी 67 करोड़ के मुआवजे का इंतजार है. बांदा, हमीरपुर, महोबा और चित्रकूट जिलों में भी अतिवृष्टि के कारण एक अरब रु. से अधिक का नुक्सान आंका गया, मगर यहां भी किसानों को राहत के तौर पर अभी तक कुछ नहीं मिला है.
महाराष्ट्र के यवतमाल जिले में लक्ष्मण महुरेले और उनका परिवार. विदर्भ में सबसे ज्यादा किसान आत्महत्या कर रहे हैं
(महाराष्ट्र के यवतमाल जिले में लक्ष्मण महुरेले और उनका परिवार. विदर्भ में सबसे ज्यादा किसान आत्महत्या कर रहे हैं)

लेकिन जहां मिला है, क्या वहां हालात बदल गए हैं? पिछले महीने विदर्भ का 75 साल का किसान काशीराम भगवान इंदारे अपनी चिता खुद बनाकर उसमें जिंदा जल गया. इस घटना से देश की सबसे बड़ी अदालत भी हिल गई. 18 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट ने एक पीआइएल की सुनवाई के बाद महाराष्ट्र में किसान आत्महत्याओं के मामले की खुद छानबीन करने का फैसला किया. वैसे सरकारी आंकड़ों के मुताबिक महाराष्ट्र में 2004 से 2013 के बीच के 10 साल में 36,848 किसानों ने आत्महत्या की. इस साल भी विदर्भ और मराठवाड़ा में मौत का यह तांडव जारी है. किसानों के मुद्दे पर सत्ता में आई बीजेपी की देवेंद्र फडऩवीस सरकार ने दिसंबर में 7,000 करोड़ रु. के राहत पैकेज और 34,500 करोड़ रु. के दीर्घकालिक सूखा राहत पैकेज की घोषणा की. इसके अलावा उन्होंने केंद्र सरकार से भी 4,677 करोड़ रु. की तत्काल सहायता मांगी है. लेकिन क्या कपास की खेती में कंगाल हो गए किसानों की जान इससे बच पाएगी? विदर्भ जन-आंदोलन समिति के किशोर तिवारी को इसका बिल्कुल भरोसा नहीं है. उनका साफ कहना है कि जमीन बरबाद हो चुकी है, पानी है नहीं, ऐसे में नकदी फसलों का यह तिलिस्म जब तक टूटेगा नहीं, तब तक पैकेज से कुछ नहीं होगा. (देखें  मेहमान का कॉलम) आंकड़े तेलंगाना के भी भयानक हैं. लेकिन इससे भी खतरनाक बात यह है कि अब तो पंजाब जैसे कृषि प्रधान राज्यों से भी किसानों की खुदकुशी के समाचार आने लगे हैं.
बांदा के शिवगांव में आत्महत्या करने वाले संतोष कुमार का परिवार, गांव में 7 किसान आत्महत्या कर चुके हैं
(बांदा के शिवगांव में आत्महत्या करने वाले संतोष कुमार का परिवार, गांव में 7 किसान आत्महत्या कर चुके हैं)

तभी तो 11 दिसंबर को देश की संसद में भी कृषि संकट पर जमकर बहस हुई. 10 साल तक केंद्र की सत्ता में रही कांग्रेस के वरिष्ठ नेता आनंद शर्मा और दिग्विजय सिंह ने किसान आत्महत्या पर सरकार को आड़े हाथ लिया औैर पूछा कि किसानों के अच्छे दिन कब आएंगे. कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और जेडी (यू) नेताओं ने सरकार पर फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य को बढ़ाने और सस्ता खाद-बीज दिलाने का दबाव बनाया. बदले में सरकारी पक्ष ने भी वही आंकड़े सामने रख दिए जिनको 10 साल से यूपीए सरकार अपनी ढाल बनाती रही थी. सरकार ने यह भी साफ कर दिया कि किसान आत्महत्या के जितने मामले दर्ज किए जाते हैं उनमें से महज 8.7 फीसदी ही ऐसे हैं जिसमें किसान खेती से जुड़ी परेशानी के कारण आत्महत्या करता है. यानी आत्महत्या करने वाले 91 फीसदी किसानों के प्रति सरकार की कोई जिम्मेदारी नहीं है. इस बहस के बीच मोदी सरकार के उस संभावित कानून संशोधन की भी याद आई, जिसके तहत आत्महत्या के प्रयास को अपराध न मानने की बात कही गई है. सुप्रीम कोर्ट के वकील विराग गुप्ता पूछते हैं, ‘‘अन्य संदर्भों को छोड़ भी दें तो किसानों के मामले में ऐसा फैसला घातक भी साबित हो सकता है.’’
किसानों की आत्महत्या
उधर नई सरकार इस बात पर खुश है कि पिछले साल के शुरुआती छह माह में किसानों ने 1.99 लाख करोड़ रु. कर्ज लिया था, जबकि इस साल के शुरुआती छह माह में किसान 3.45 लाख करोड़ रु. का कर्ज ले चुके हैं. बंद पड़े 23 जिला सहकारी बैंकों को चालू करने के लिए सहायता भी दे दी गई है. सरकार को तसल्ली है कि किसान अर्थव्यवस्था की मुख्य धारा से जुड़ रहे हैं. लेकिन कर्ज के बोझ से दबे किसान कहीं खेत में फांसी लगा रहे हैं, तो कहीं जिंदा ही चिता में जल जा रहे हैं. सवाल यह है कि कर्ज और मौत के बीच के इस बारीक फासले को दूर करने वाला फसल बीमा आखिर कहां है? क्यों किसान को फसल खराब होते ही बीमा का पैसा नहीं मिल जाता ताकि उसे बैंक का कर्ज चुकाने में कोई दिक्कत ही न आए. आखिर शिवगांव की अंकुला को कौन भरोसा दिलाएगा कि उसका पूरा गांव एक-एक कर नहीं मर जाएगा.

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