www.dudhwalive.com
URL - http://www.dudhwalive.com/2013/06/environmental-disaster-in-bundelkhand.html
प्रदेश में अवैध खनन पर रोक लगाने को लेकर जहां-तहां सुप्रीम कोर्ट एवं उच्च न्यायालय इलाहाबाद की चैखटें सामाजिक कार्यकर्ता खटखटाते रहते हैं। सरकार भले ही अपने राजस्व की दुहाई देकर ब-हलफ न्यायमूर्ति बनकर बैठे न्यायधीशों के समक्ष झूठे और बे-बुनियादी जबाब देकर पल्ला झाड लेती है, लेकिन इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता कि सूबे की सरकार समाजवादी हो या पूर्व की सरकारें वे पर्यावरण संरक्षण को लेकर तनिक भी संजीदा नहीं है।
बुंदेलखंड को खनिज संपदाओं के दोहन की बानगी के रूप में देखना प्रासांगिक होगा वो भी तब जबकि एक सूखाग्रस्त इलाके में प्रकृति की उथल-पुथल से जुझते बाशिंदे संसाधनों को बचाने की गुहार करते हो। मालूम रहे कि जब सरकार पहरेदार और ठेकेदार माफिया बन जाए तो अवैध खनन को रोकना किसी भी कानून के नियमों के बस में नहीं है। बुंदेलखंड के बांदा जनपद का हाल यूं ही है जहां नदियों का सीना चीरकर बेखौफ खनन माफिया बालू व मौरम का उत्खनन कर रहे हैं। उच्च न्यायालय इलाहाबाद में दाखिल जनहित याचिका 6798/2011 के आदेश व सुप्रीम कोर्ट के 27 फरवरी 2012, हाईकोर्ट इलाहाबाद के एक और अन्य आदेश 1 अक्टूबर 2012 पर गौर करें तो बिना पर्यावरण सहमति प्रमाण पत्र के खनन गतिविधियों पर रोक लगा दी गई है। यहां तक की ईंट-भट्ठों की मिट्टी खुदाई पर भी आदेश के अनुपालन में पर्यावरण एनओसी के बगैर 2 मीटर से अधिक गहराई पर खनन पूरी तरह वर्जित है। बावजूद इसके कानून को अपनी पाजेब बनाकर क्या बालू माफिया और क्या ईंट-भट्ठों के मालिक बेधड़क पर्यावरण की अस्मिता को चुनौती देते नजर आते है।
उत्तर प्रदेश सरकार के पूर्व आयुक्त एवं प्रमुख सचिव अखंड प्रताप सिंह ने 30 जनवरी 2001 को प्रशासनिक स्तर पर सभी आयुक्तों व जिलाधिकारियों को पत्र जारी करते हुए कहा था कि शासकीय विभाग, सार्वजनिक उपक्रम, स्थानीय निकाय, विकास प्राधिकरण, निजी कंपनी व स्वयं व्यक्ति भारी मात्रा में अवैध खनन करके पर्यावरण को क्षति पहुंचा रहे हैं। सीएजी की रिपोर्ट 2011 के मुताबिक बुंदेलखंड में खनिज संपदा से 510 करोड़ रुपए राजस्व की प्राप्ति होती है, लेकिन वर्ष 2011 में 258 करोड़ रुपए की रायल्टी सीधे तौर पर माफियाओं व गुंडा टैक्स का हिस्सा बनकर रह गई।
बांदा जिले के नरैनी क्षेत्र में मध्य प्रदेश की सीमा से लगे हुए नदी घाट मसलन नसेनी, पुकारी, नरसिंहपुर, पैगंबरपुर, परेई घाट में बालू पोकलैड-लिफ्टर मशीनों से निकालकर एमपी की बालू और यूपी का रवन्ना चलाने का काम भी किया जाता है। खनन का यह काला कारोबार सरकार से लेकर दबंग ठेकेदार तक जग-जाहिर है। वन विभाग के आलाधिकारी विभागीय खानापूर्ति करके एनओसी जारी करते हैं, जबकि ऐसे नदी क्षे़त्रों में खनन प्रक्रिया प्रतिबंधित है जो घाट वन क्षे़त्र में आते हैं। बांदा जिले के राजघाट व हरदौली घाट में तो नदी की धारा को बांधकर बालू का उत्खनन किया जा रहा है और स्थानीय जिला प्रशासन के कानों में जूं तक नहीं रेंगती हैं। इन बालू खदानों में काम करने वाले मजदूर मध्य प्रदेश के सतना, पन्ना, भिंड, मुरैना से गरीबी और मुफलिसी के चलते रोजगार की तलाश में पलायन करके आते हैं। आठ घंटे लगातार नदी की धारा में खड़े होकर मजदूरी करने के बाद उन्हें दो वक्त की रोटी और 2 सौ रुपए दिहाड़ी मजदूरी दी जाती है। सारे मानवाधिकार आयोग, मानवाधिकार कार्यकर्ता इन तथ्यों से गाहे-बगाहे वाकिफ भी रहते है मगर बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे यह सोंचकर शायद वे भी इन बेबस कामगारों को उनके हालत पर छोड़ने के लिए मजबूर है। पर्यावरण के साथ एक सूखा जनित क्षे़त्र में नदियों के साथ यह प्राकृतिक दुराचार मानवीय संवेदना को तार-तार करने का प्रमाण है। तो क्या हुआ कि हम वर्ष के एक दिन वैश्विक स्तर पर विश्व पर्यावरण दिवस मनाकर अपनी रस्म अदायगी पूरी कर देगे। नदियां और जंगल लुटते रहेगे उसी तरह जैसे कि लुटते है लोकशाही में आम आदमी के नैतिक अधिकार।
आशीष सागर
ashish.sagar@bundelkhand.in
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लुटती नदियाँ और लुटते जंगल-बुंदेलखंड की यही कहानी !
मानवाधिकारों को ताक पर रखकर पर्यावरण की अनदेखी
प्रदेश में अवैध खनन पर रोक लगाने को लेकर जहां-तहां सुप्रीम कोर्ट एवं उच्च न्यायालय इलाहाबाद की चैखटें सामाजिक कार्यकर्ता खटखटाते रहते हैं। सरकार भले ही अपने राजस्व की दुहाई देकर ब-हलफ न्यायमूर्ति बनकर बैठे न्यायधीशों के समक्ष झूठे और बे-बुनियादी जबाब देकर पल्ला झाड लेती है, लेकिन इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता कि सूबे की सरकार समाजवादी हो या पूर्व की सरकारें वे पर्यावरण संरक्षण को लेकर तनिक भी संजीदा नहीं है।
बुंदेलखंड को खनिज संपदाओं के दोहन की बानगी के रूप में देखना प्रासांगिक होगा वो भी तब जबकि एक सूखाग्रस्त इलाके में प्रकृति की उथल-पुथल से जुझते बाशिंदे संसाधनों को बचाने की गुहार करते हो। मालूम रहे कि जब सरकार पहरेदार और ठेकेदार माफिया बन जाए तो अवैध खनन को रोकना किसी भी कानून के नियमों के बस में नहीं है। बुंदेलखंड के बांदा जनपद का हाल यूं ही है जहां नदियों का सीना चीरकर बेखौफ खनन माफिया बालू व मौरम का उत्खनन कर रहे हैं। उच्च न्यायालय इलाहाबाद में दाखिल जनहित याचिका 6798/2011 के आदेश व सुप्रीम कोर्ट के 27 फरवरी 2012, हाईकोर्ट इलाहाबाद के एक और अन्य आदेश 1 अक्टूबर 2012 पर गौर करें तो बिना पर्यावरण सहमति प्रमाण पत्र के खनन गतिविधियों पर रोक लगा दी गई है। यहां तक की ईंट-भट्ठों की मिट्टी खुदाई पर भी आदेश के अनुपालन में पर्यावरण एनओसी के बगैर 2 मीटर से अधिक गहराई पर खनन पूरी तरह वर्जित है। बावजूद इसके कानून को अपनी पाजेब बनाकर क्या बालू माफिया और क्या ईंट-भट्ठों के मालिक बेधड़क पर्यावरण की अस्मिता को चुनौती देते नजर आते है।
उत्तर प्रदेश सरकार के पूर्व आयुक्त एवं प्रमुख सचिव अखंड प्रताप सिंह ने 30 जनवरी 2001 को प्रशासनिक स्तर पर सभी आयुक्तों व जिलाधिकारियों को पत्र जारी करते हुए कहा था कि शासकीय विभाग, सार्वजनिक उपक्रम, स्थानीय निकाय, विकास प्राधिकरण, निजी कंपनी व स्वयं व्यक्ति भारी मात्रा में अवैध खनन करके पर्यावरण को क्षति पहुंचा रहे हैं। सीएजी की रिपोर्ट 2011 के मुताबिक बुंदेलखंड में खनिज संपदा से 510 करोड़ रुपए राजस्व की प्राप्ति होती है, लेकिन वर्ष 2011 में 258 करोड़ रुपए की रायल्टी सीधे तौर पर माफियाओं व गुंडा टैक्स का हिस्सा बनकर रह गई।
बांदा जिले के नरैनी क्षेत्र में मध्य प्रदेश की सीमा से लगे हुए नदी घाट मसलन नसेनी, पुकारी, नरसिंहपुर, पैगंबरपुर, परेई घाट में बालू पोकलैड-लिफ्टर मशीनों से निकालकर एमपी की बालू और यूपी का रवन्ना चलाने का काम भी किया जाता है। खनन का यह काला कारोबार सरकार से लेकर दबंग ठेकेदार तक जग-जाहिर है। वन विभाग के आलाधिकारी विभागीय खानापूर्ति करके एनओसी जारी करते हैं, जबकि ऐसे नदी क्षे़त्रों में खनन प्रक्रिया प्रतिबंधित है जो घाट वन क्षे़त्र में आते हैं। बांदा जिले के राजघाट व हरदौली घाट में तो नदी की धारा को बांधकर बालू का उत्खनन किया जा रहा है और स्थानीय जिला प्रशासन के कानों में जूं तक नहीं रेंगती हैं। इन बालू खदानों में काम करने वाले मजदूर मध्य प्रदेश के सतना, पन्ना, भिंड, मुरैना से गरीबी और मुफलिसी के चलते रोजगार की तलाश में पलायन करके आते हैं। आठ घंटे लगातार नदी की धारा में खड़े होकर मजदूरी करने के बाद उन्हें दो वक्त की रोटी और 2 सौ रुपए दिहाड़ी मजदूरी दी जाती है। सारे मानवाधिकार आयोग, मानवाधिकार कार्यकर्ता इन तथ्यों से गाहे-बगाहे वाकिफ भी रहते है मगर बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे यह सोंचकर शायद वे भी इन बेबस कामगारों को उनके हालत पर छोड़ने के लिए मजबूर है। पर्यावरण के साथ एक सूखा जनित क्षे़त्र में नदियों के साथ यह प्राकृतिक दुराचार मानवीय संवेदना को तार-तार करने का प्रमाण है। तो क्या हुआ कि हम वर्ष के एक दिन वैश्विक स्तर पर विश्व पर्यावरण दिवस मनाकर अपनी रस्म अदायगी पूरी कर देगे। नदियां और जंगल लुटते रहेगे उसी तरह जैसे कि लुटते है लोकशाही में आम आदमी के नैतिक अधिकार।
आशीष सागर
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