विरासत में कर्ज ढोते मासूम बच्चे
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http://www.janjwar.com/society/1-society/4473-virasat-men-mila-karz-dhote-masoom-by-ashish-sagar-dixit-for-janjwar
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सपने
को टूटता देखकर सुरेश यादव 18 जून को बच्चों को रात में सोता हुआ छोड़कर
चला गया, कभी न वापस आने के लिए. उसके तीन बच्चों के पास पिता के अंतिम
संस्कार का भी पैसा नहीं था, लेकिन गाँव वालों के चंदे से पिता का अंतिम
संस्कार किया...
आशीष सागर दीक्षित
बुंदेलखंड
में कर्जदार किसानों द्वारा आत्महत्या किये जाने की एक लम्बी फेहरिस्त है,
लेकिन कुछ किसान कर्ज से ऐसे टूटे कि जिंदगी के छूटने के साथ सबकुछ बिखर
गया है. बच्चे अनाथ हुए और खेती की जमीन बैंक में गिरवी हो गई.
ऐसा ही एक
किसान का परिवार यानी बच्चे उसकी मौत के बाद विरासत में मिले कर्ज का बोझ
ढो रहे हैं. इतना ही नहीं गाँव के साहूकारों की दबिश ने अनाथ बच्चों का
जीना भी दुर्भर कर दिया. इनको माता–पिता का प्यार तो नसीब नहीं हुआ, लेकिन
विरासत में कर्ज का दंश जरूर मिल गया है.
दो बीघा
बैक में गिरवी रखी जमीन पर तीन बच्चों का गुजारा कैसे होगा ये अब बड़ा सवाल
था? सबसे बड़े भाई विकास के सामने दो अपनी दो छोटी बहनों संगीता और अन्तिमा
की परवरिश का सवाल भी मुंह बाये खडा है. उस मासूम के लिये अपने परिवार यानी
खुद और दो छोटी बहनों की रोटी का जुगाड कर पाना भी मुश्किल था. सवाल था कि
ऐसे हालात में वह बैंक का ब्याज सहित कर्ज कैसे चुकायेगा. मगर विकास
हिम्मत न हारते हुए अपनी दो बीघा बंधक रखी खेतिहर जमीन को मुक्त कराने की
कवायद में संघर्षरत है.
बुंदेलखंड
के किसानों के लिए ही नहीं, बल्कि अन्य प्रान्तों के कर्जदार किसान
परिवारों के लिए भी जनपद बाँदा जिले के ग्राम बघेलाबारी दस्यु प्रभावित
नरैनी के ये तीन बच्चे मिसाल हो सकते हैं. 18 जून 2011 को बघेलाबारी के
किसान सुरेश यादव ने किसान क्रेडिट कार्ड से लिये 21 हजार रुपया कर्ज के
चलते अपने ही खेत में दम तोड़ दिया.
मृतक
किसान सुरेश यादव ने 2 बीघा जमीन त्रिवेणी ग्रामीण बैंक, फतेहगंज में गिरवी
रख यह कर्ज लिया था और 13 हजार रुपये गाँव के साहूकार से भी. सुरेश यादव
के पास कुल 4 बीघा जमीन थी, जिसमें 2 बीघा जमीन उसने अपनी पत्नी सरस्वती के
कैंसर इलाज में बेच दी थी. जमीन बेचने के बावजूद वह अपनी पत्नी को नहीं
बचा पाया था.
अब ये तीन
बच्चे ही किसान का सपना थे, पर शायद किस्मत को ये भी मंजूर नहीं था. गरीबी
से कर्जदार किसान टीवी का शिकार हो गया. इलाज तो दूर की बात, घर में
बच्चों को रोटी खिला पाना भी उसके लिए बड़ी बात हो गयी. वैसे भी सूखे
बुंदेलखंड की 2 बीघा जमीन में होता भी क्या है?
अपने सपने
को टूटता देखकर सुरेश यादव 18 जून को बच्चों को रात में सोता हुआ छोड़कर
चला गया, कभी न वापस आने के लिए. उसके तीन बच्चों के पास पिता के अंतिम
संस्कार का भी पैसा नहीं था, लेकिन गाँव वालों के चंदे से ये सब मुनासिब
हुआ. जिंदगी के असली संघर्ष की कहानी तो विकास के सामने पिता की मौत के बाद
शुरू हुई.
पिता की
मौत के वक्त विकास 16 वर्ष का था, जब उसको अपने अधिकारों और बहनों के
लालन–पालन के लिए शासन की देहरी में नतमस्तक होना पड़ा. वह अपने अधिकारों के
लिये 5 दिन के आमरण अनशन पर बैठा, तब जाकर उसको आधा–अधूरा एक इन्दिरा आवास
वो भी बिना छत का और 20 हजार रुपये की सरकारी मदद मिली, लेकिन उसकी बहनों
को ममता का आसरा नहीं मिला, जीवन जीने कि गारंटी नहीं मिली, स्कूल में
दाखिला भी नहीं मिला. सामाजिक ताना–बाना नहीं मिला.
ग्राम
प्रधान तक ने इन मासूमों का साथ छोड दिया. अपने तो कब का साथ छोड चुके थे.
आज विकास अपने पिता की मृत्यु के दो साल बाद अपने साथ दो बहनों की पढाई का
खर्च, बहन संगीता की शादी (16 वर्ष) के सपने आँखों में पालकर छोटी बहिन
अन्तिमा को पूरी ईमानदारी से जीवन के मायने समझाता है.
बारहवीं
की पढाई करने के साथ विकास खुद से खेती करता है और एक स्कूल श्रीशिवशरण
कुशवाहा बिरोना बाबा समिति, छितैनी में पार्टटाइम पढ़ाता भी है. इसके लिए वो
प्रतिदिन 20 किलोमीटर साईकिल से यात्रा करता है. विकास खुद बिना कोचिंग के
अध्यापक के घर पर शाम को ही पढता है. कोचिंग के लिए उसके पास रुपया नहीं
है और इंटर तक के उसके सरकारी स्कूल में बच्चों को पढ़ाने के लिए अध्यापक
नहीं हैं.
उसकी बड़ी
बहन संगीता 9वीं और अन्तिमा तीसरी की छात्रा है. पर पिता का कर्ज अब 30
हजार रुपये ब्याज के कारण हो गया है और 13 हजार साहूकार का बकाया भी देना
है. इन कठिन पलो में उसके लिए अपने और बहनों के सपने अभी भी एक अनबूझ पहेली
ही हैं, जिंदगी की तरह.
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