Friday, May 27, 2011

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           (Story) - सूखे में किसान और आत्महत्या


सूखे में किसान और आत्महत्या
  • कर्ज की आड़ में कुकृत्यों पर पर्दा
  • आत्महत्या पर लगी है मुआवजे की राख
  • तंगहाली और फांकाकशी से दूर है मीडिया की नजर
वर्ष 2003 से 24 अगस्त 2006 तक बुन्देलखण्ड में कुल मिलाकर 1040 आत्महत्याये बतौर केस दर्ज हुयी हैं। जिनमें कि 12 दहेज, 459 पारिवारिक तनाव, 86 व्यक्तिगत कारण, 371 अन्य अज्ञात कारण और 122 आत्महत्यायें कर्ज-भुखमरी के चलते बुन्देलखण्ड में आत्महत्या की तस्वीर में दिखाई देती हैं। गौर से देखिये इस खबर को जिसे पढ़कर इंसानी रूहत में सिरहन न उठे तो खबर का मसाला ही कम दिखाई पड़ेगा। जनपद बांदा के ब्लाक बदौसा मंे बीते 18.05.2011 को तंगहाली से परेशान एक और किसान जीवन की बाजी हार गया, 38 वर्षीय कर्जदार किसान ने खुद को जिन्दा फूंक डाला। यह खबर बुन्देलखण्ड के हर एक दैनिक समाचार पत्र की सुर्खियां हैं। कस्बा निवासी युवा किसान प्रमोद तिवारी ने वर्ष 2005 में अतर्रा स्थित भारतीय स्टेट बैंक कृषि विकास शाखा से टैक्टर लिया था। जिसका खाता नम्बर 11628887623 है। एक भी किस्त अदायगी न करने के चलते बैंक की तरफ से गत शनिवार तीस दिन के अन्दर मूलधन और ब्याज बैंक में जमा नहीं करने पर गिरफ्तारी और कुर्की का वारन्ट जारी कर दिया जायेगा। ऐसा बैंक प्रबन्धक के हाथों से लिखी कर्ज की राशि लगभग 2,46,221/- रूपये अंकित है। आनन फानन में हुयी इस आत्महत्या के बाद पारिवारिक जनों ने जनपद बांदा मंे पोस्टमार्टम के लिये किसान की लाश को लाये। रात 8ः30 बजे तक किसान के बड़े भाई और स्वैच्छिक संगठन किसान विकास क्षेत्रीय समिति, बदौसा संचालक वन्दना तिवारी, संरक्षक अरूण तिवारी मीडिया कर्मियों को बताते रहे कि छोटे भाई की मौत शराब की लत के कारण हुयी है। आये दिन घर में पत्नी गीता से मारपीट करना और पारिवारिक तनाव के कारण अवसाद ग्रसित होने से उन्होने इस घटना को अन्जाम दिया है। लाश के पोस्टमार्टम हो जाने तक खबर का रूख शराब की लत में युवक की मौत रहा लेकिन जैसे ही पारिवारिक जन कस्बा बदौसा पहुंचे तो इस घटना को कर्जदार किसान के रूप में तंगहाली और गरीबी से आजिज आत्महत्या का रूप दे दिया गया।
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गौरतलब है कि बुन्देलखण्ड लगातार सूखे और जलसंकट से टूट रहा है। जहां 2003 से वर्ष 2007 तक यहां भीषण आकाल और किसान आत्म हत्याआंे का दौर अभियान के रूप में चला वहीं वर्ष 2007 के बाद गाहे-बगाहे ही गरीबी और भुखमरी से कुछ किसानों ने जीवन लीला को समाप्त कर लिया। आज बुन्देलखण्ड का तकरीबन प्रत्येक किसान फिर चाहें वह हासिये पर खड़ा गांव का आम किसान हो या फिर ग्रामीण तबके और शहरी परिवेश से जुड़ा दादू और दबंग किसान। कमोवेश दोनो ही स्थितियों में हर किसान क्रेडिट कार्ड के नाम पर बैंक का कर्जदार है। चूंकि प्रशासन की नीतियां और सरकार की विकास योजनाओं मंे इतनी खामियां हैं कि उन्होने किसान के आन्दोलन, उसकी परिस्थितियों का राजनीतिकरण कर दिया है। उन्होने यह एहसास कराया है कि किसान खुद कुछ भी तय नहीं कर सकता न तो अपनी जमीन पर फसल, न ही बीज और न ही पानी इन तीनांे चीजों पर सरकारी मिशनरी का मालिकाना हक है। रासायनिक बीजों से लेकर मौसमी फसल तक का आंकलन अब कृषि वैज्ञानिक और सरकार की नीतियां करती हैं। खैरात के नाम पर जो कुछ मिल जाये। वह किसान की किस्मत है। ऐसे हालात में कुछ किसान बुन्देलखण्ड ही नहीं पूरे देश में ऐसे हैं जो कर्ज की आड़ में अपने कुकृत्यों पर न सिर्फ पर्दा डालने का काम करते हैं बल्कि समाज के लोग उनकी आत्म हत्याओं को मुआवजे की राख में लपेटकर बैंक और बदहाल बुन्देलखण्ड की तस्वीर को एक साथ जोड़ने का भी बखूबी षड्यन्त्र रचते हैं।
इस आपाधापी की स्थिति मंे लोकतंत्र के चैथे स्तम्भ मीडिया की नजर आखिर क्यों नहीं जमीन से जुड़े उस किसान की तरफ जाती है जो वास्तव मे साल दर साल सूखे और जलसंकट से त्रस्त होकर पलायन और कर्ज का हिस्सेदार बनता है। कुछ ऐसा ही बानगी के रूप में महोबा जनपद के डढ़हत माफ गांव के बासिन्दों के साथ हो रहा है जहां 250 कुएं पूरी तरह सूख चुके हैं। कुशवाहा बिरादरी के इस गांव का मूल पेशा बागबानी था। लेकिन महोबा के सूखे पान के मानिन्द मंे खुशहाल किसानों की खेती को भी बंजर कर दिया। आज इस गांव में एक दो नहीं सैकड़ों ऐसे परिवार हैं जो भिण्ड, मुरैना, गुजरात में ईंट भट्टों की मजदूरी के लिये परिवार सहित पलायन कर गये। बुन्देलखण्ड के सूखे वाले सर्वाधिक हिस्से में महोबा जनपद आता है और वहां किसानों की आत्म हत्यायें भी बांदा व चित्रकूट की अपेक्षा अधिक हुयी हैं। बुन्देलखण्ड के मध्य प्रदेश का हिस्सा उत्तर प्रदेश के हिस्से से अधिक सूखा ग्रस्त है। छतरपुर जनपद के बड़ा मल्हरा ब्लाक के अंधियारी गांव में जलस्तर 1500 फिट पर है। लेकिन किसी किसान ने उस गांव में आत्म हत्या नहीं की। ऐसा ही राजस्थान राज्य की स्थिति है जहां वर्ष के 4 माह ही हरियाली रहती है। रोजगार की तलाश में वहां के हजारों परिवार पूरे देश मे पलायन करते हैं। हताशा और निराशा के परिणाम को जानकर उन्होने आत्महत्या नहीं की। मगर उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड वाले हिस्से में आज हर आत्महत्या को कर्जदार किसान के रूप में जोड़ा जा रहा है। ऐसे में उन मौतों पर मीडिया का पर्दा पड़ जाता है जो वास्तव में तंगहाली और गरीबी की वजह से आत्महत्या करते हैं।
आशीष सागर - प्रवास, बुन्देलखण्ड

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