Monday, August 02, 2010

निहार - निहार थक गे हु कोऊ ना आओ


जनपद बांदा का ये छोटा सा मजरा गुरेह आज भी ठाकुरों और लंबरदारो के चलते गरीबी से आजिज परिवारों की अपनी ही कहानी कहने के लीये काफी है इस मजरे की सबसे खास बात ये है की अगर आपको बुजुर्गो की एकल जिंदगी और उनसे जुड़े खून के रिस्तो के बीच की दूरियों का आकलन करना है तो हुजुर गुरेह आना ही चाहिए क्योकि इस मजरे में सहज ही गलियों ,घरो के बाहर आपको एक बूढी काकी अपना खाना पकते मिल जाएगी जिसको उनकी ही बहुये और अपने ही जिगर के टुकड़े सिर्फ इस लीये दो जून का भोजन नहीं देते है ताकि उसको अपच ना हो जाये वैसे तो उनकी हालत भी दो वक्त के खाने के लीये संघर्ष की बानगी ही है

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