कला देवी
आत्मनिर्भरता की नजीर बन गयी कला देवी !
गांवो से शहर की दूरियां नापने वाले तमाम परिवारों, गरीबी से हार मानकर टूटने वाली जीवन प्रत्याशा में जान फूकती कला देवी आज किसी मायने में पर निर्भर नहीं है, मुफलिसी के शिकार चार और परिवारों का सहारा बनी ये जुनूनी महिला।
बांदा/सदर तहसील- जिन्दगी को जीने की ललक हो तो कुछ भी असहज नहीं होता। कुछ ऐसी ही कवायद करती कला देवी एक गरीब परिवार से ताल्लुकात रखने के बाद भी अब खुद के साथ साथ चार और गरीब परिवारों के लिए स्वावलम्बन की नजीर बन गयी है। उसने सफलता की इबारत लिखते हुए बुन्देलखण्ड जैसे पिछड़े, बदहाल क्षेत्र में सरकारी योजनाओं को मुह चिढ़ा दिया है।
पिछले छः वर्षों से सूखे और गरीबी से टूटते बिन पानी बुन्देलखण्ड में बदहाली को दूर करने के लिये तमाम सरकारी योजनायें अपनी होड़ में कागजी आंकड़ों में गिरफ्त नजर आती हैं वहीं भुखमरी के चलते होने वाली प्रत्येक आत्महत्या भी सियासत की भेंट चढ़ जाती है। ऐसी ही फांकाकशी के माहौल में जनपद बांदा की तहसील तिन्दवारी के ग्राम पचनेही (बरदहनी) निवासी कला देवी एक मिसाल है। सन् 2008 में गांव से शहर पलायन करने के बाद उसके परिवार ने दिल्ली-गुजरात मजदूरी करने से बेहतर अपने ही शहर में हुनर के सहारे कुछ नया करने की ठानी, और इसकी अगुवाई में उतरी स्वयं कला देवी पत्नी रामगोपाल गुप्ता आज कालू कुंआ स्थित ओवर ब्रिज पुल के पास फुटपाथ में आशियाना बनाये अपने परिवार पुत्री सोनू (18), पुत्र रोहित (15) व सास कमला के साथ चार और गरीब परिवारों की महिलायें शकुन्तला, सुजाता, मुन्नी बाई, विकलांग राजकुमारी को भी खुशहाल बनाने में जुटी है। छोटी पूंजी में आज पांच परिवार और बांदा जैसे पिछड़े शहर में उसके जज्बे से और लोगों को नसीहत मिलते देख हुनर की कद्र समझ आती है।
कला देवी (45) की सास कमला कहती है कि दो वर्ष पहले शुरू किया गया चालीस हजार रूपये का छोटा सा कारोबार ही हमारी जीविका का एक मात्र साधन है बनिस्बत हमें किसी के आगे हाथ नहीं फैलाना पड़ता। रामगोपाल कानपुर से थोक में कच्चे पोंगे लाता है और इन्हे घर में तलकर पैकिंग करने के बाद छोटी दुकानों में बिक्री के लिए भेजता है। कला देवी ने वार्ता करने के दौरान बताया कि एक बोरे में 800 पैकेट बनकर तैयार होते हैं। इन्हे फुटकर दुकानदारों से 230 रूपये सैकड़ा (पैकेट) के हिसाब से बेंचा जाता है। इस लघु कारोबार के लिए उसे किसी से कर्ज नहीं लेना पड़ा इसके साथ ही चार और परिवार अपने पैरों पर आत्मनिर्भर हैं। एक दिन में एक हजार पोंगे लगभग तैयार हो जाते हैं और अन्य महिलाओं को दस रूपये सैकड़ा पैकिंग खर्च मिलता है। अच्छा माल तैयार करने के लिए पामोलिन आयल उपयोग करने के बाद भी प्रति परिवार दो सौ रूपये आराम से बचता है। कला देवी इन दो वर्षों में अपनी दो बेटियों के हाथ भी इसी धन्धे के सहारे पीले कर चुकी है और पुत्री सोनू बी0ए0 प्रथम वर्ष, पुत्र रोहित इण्टरमीडिएट की पढ़ाई के साथ परिवार की अन्य दैनिक जरूरतें भी आराम से पूरी हो जाती हैं।
बकौल कला देवी कहती है -
‘‘जिन्दगी को जीने का जज्बा हो, तो कुछ भी कमतर नहीं होता । मेरा शहर अपना घर है, परदेश घर नहीं होता ।। ’’
‘‘जिन्दगी को जीने का जज्बा हो, तो कुछ भी कमतर नहीं होता । मेरा शहर अपना घर है, परदेश घर नहीं होता ।। ’’
आषीष सागर, प्रवास, बुन्देलखण्ड
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