Thursday, October 30, 2014

बुन्देखंड क्या फ़िर से आबाद हो पायेगा ?

Down to earth....!



ऐसा लगता तो नही है, और मैं निराशावादी भी नही हूँ । लेकिन आज जिस कदर बुंदेलखंड में प्राकृतिक संसाधनों का दोहन बिना सोचे समझे हो रहा है, उससे अब बुंदेलखंड में पुनः सामान्य जन जीवन हो पाना मुश्किल ही नही अपितु असंभव जान पड़ता है। सामान्य जन जीवन की बहाली बुंदेलखंड में अब उतनी ही कठिन है जितना कठिन मरुस्थल में दूब उगाना है । मरुस्थल की ओर, आज बुंदेलखंड अग्रसर है और शायद एक से डेढ़ दशक लगेंगे जब बुंदेलखंड में भी मरुस्थल की तरह रेत के टीले और उनके पीछे पानी का आभास दिलाते हुए मृग मरीचिका दिखाई पड़ेगी। आज छतरपुर शहर में दोनों वक्त पानी नलों में नही आते, दोनों वक्त की तो छोडिये रोज़ भी नही आता है, एक दिन छोड़ करके आता है यहाँ के नलों में पानी । अब ऐसे में नगरवासी किस तरह से रोज़ के जीवन में जल प्रबंधन करते होंगे शोध का विषय हो सकता है । यह तो हाल है छतरपुर का बाकी के जनपद जो बुंदेलखंड क्षेत्र में आते है उनका भी हाल कुछ ऐसा ही है । छतरपुर और पन्ना जिलों के मध्य पन्ना घाटी है, पन्ना घाटी कुछ वर्ष पहले तक सालभर हरी भरी रहती थी लेकिन अब पाना घाटी के जल श्रोत सूख रहे है धीरे-धीरे, जिसका सीधा असर घाटी में स्थिति पेड़ पौधों पर पड़ रहा है । हरी भरी घाटी अब उजडे जंगल सी दिखने लगी है । महोबा जिला जो की उत्तर प्रदेश में पड़ता है उसकी भी स्थिति कुछ ऐसी ही है , यहाँ बड़े तालाबों को सागर कहते है लेकिन यह सागर भी अब अपने स्थिति पर आंसू बहा रहे है । महोबा से १५-१७ किलोमीटर दूर कबरई है जो की किसी युद्ध क्षेत्र की तरह दिखने लगा है, सफ़ेद पेड़, खेतो में एक मोटी परत पत्थर तोड़ने की प्रक्रिया में उड़ने वाली धूल की , कल तक जहा पहाड़ थे, आज वहां सैकडों फिट गहरी खाई है । लोगो के चहरे पर मुर्दनी छाई रहती है बहुतो ने अपनी आँखे गँवा दी है, और बहुतो के फेफड़े सड़ गए है सिलिका नामक धूल के कणों से । इन सब की वजहों से हर साल बुंदेलखंड से लाखों की संख्या में बुंदेलखंड वासी पलायन कराते है महानगरों की ओर, जहा पर इनकी भूमिका जादातर निर्माण मजदूर की होती है । यह बुन्देली लोग जब जल और सूखे की समस्या से भागते है महानगरों की ओर तबभी इनकी स्थिति में कोई बदलाव नही होता है । इन्हे तपती दोपहरी में काम करना पड़ता है और रात को किसी नदी, नाले या पुल के नीचे स्थित झुग्गी-झोपडी में रात बितानी होती है जहा पर इनके साथ वह साड़ी समस्याएँ खड़ी रहती है जिनसे बचने के लिए यह लोग बुंदेलखंड से पलायित होते है । एक पुरानी कहावत है धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का । वाह री हमारी कल्याणकारी सरकारें क्या यह सारे लोग इन्ही सब चीजो के लिए अपनी गाढ़ी कमाई से कर देते है । इनसे वसूले जाने वाले कर का हिसाब क्या कभी हमारी सरकारें दे पाएंगी या इनके साथ न्याय कर पाएंगी । बहुत कठिन है इस बारे में कह पाना भी । किसी भी राजनैतिक दल के घोषणा पत्र
में इन सब लोगो से जुड़ी कोई भी सीधी बात का भी अकाल है, किसी के लिए यह मुद्दा नही है । महानगरों के झुग्गियों में रहने वाले लोग महानगरों के मतदाता नही है और चूंकि यहाँ से पलायन कर गए है तो यहाँ भी मतदान में उनकी भूमिका नगण्य है, मेरी समझ से शायद इसी लिए किसी भी राजनैतिक दल को इनकी सुध लेने की जरूरत नही पड़ती ।
बुंदेलखंड की कहानी अधूरी रह जाती है अगर हम बुंदेलखंड के मवेशियों का जिक्र न करें । बुंदेलखंड में एक प्रथा मवेशियों से जुड़ी हुई है जिसे बुन्देली लोग अन्ना प्रथा कहते है । यह प्रथा सदियों पुरानी है, जिससे यह प्रमाणित होता है की बुंदेलखंड में सदियों से सूखा पड़ता रहा है कुछ वर्षो के अंतराल के साथ , लेकिन उस समय वन और वनस्पति भरपूर मात्रा में थी जिसकी वजह से सभी किसान गर्मी के दिनों में अपने पशुओं को छुट्टा छोड़ देते थे । इस छुट्टा छोड़ देने की प्रथा को ही अन्ना प्रथा कहते है । यह सारे छुट्टा मवेशी वनों के भरोसे गरमी का मौसम बिताते थे, गर्मी के बाद जैसे ही बरसात आती थी तब किसान अपने पशुओं को दूंढ -ढांढ कर लाते थे । आज भी बुंदेलखंड में यह प्रथा लागू है लेकिन अब पशु वनों के बजाय सड़कों और सूखे खेतों में आवारगी करते है । जल और घास के संकट से जूझते हुए यह मवेशी बड़ी संख्या में काल के गाल में समा जाते है । कितने पशु मरे और क्यों मरें इन सबका हिसाब किताब रखने वाला कोई नही है ।
बुंदेलखंड में लगभग 29000 तालाब है जिनमे से अधिक्तर आज कीचड और गन्दगी की वजह से उथले हो गयी है या फ़िर पहाड़ के ख़ुद जाने से उनमे अब पानी आने का रास्ता नही रह गया है । पूर्व में यह सारे तालाब वर्ष भर बुंदेलखंड के लोगो और मवेशियों को जल उपलब्ध कराते थे। आज इन सारे तालाबों को ही किसी तारनहार की जरूरत है, इन तालाबों को अगर फ़िर से व्यवस्थित किया जा सके तो शायद बुंदेलखंड के बहुत सारे जानवरों को बिना पानी के मरने से बचाया जा सके और इसके साथ ही जो भूगर्भ जल तैयार होगा वह यहाँ के लोगो की प्यास बुझा सकेगा ।

हमारी सरकारें चाहे वह राज्य की हो या फ़िर केन्द्र की उनमे से कोई भी शुद्ध पेय जल की उपलब्धता को जीवन जीने के अधिकार (अधिनियम २१ ) के तहत क्यों नही लाती है । क्यू लायेगीं जब चिकित्सा सुविधा या भोजन अधिकार को आज तक नही ला पायी । यह विडम्बना है दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश का जहाँ पर - जनता के द्वारा, जनता पर , जनता का शासन होता है ।
Resource writer - प्रशांत भगत , प्रतापगढ़ / थाईलैंड के साथ बलवंत ताऊ

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