Saturday, March 05, 2011

बुंदेलखंड के पठारों में मृदा एवं नमी संरक्षण

Source: 
ग्रामीण सूचना एवं ज्ञान केन्द्र
भारत एक कृषि प्रधान देश है जिसका प्रमुख व्यवसाय है कृषि एवं पशुपालन। कृषि पर निर्भर जनसंख्या की आर्थिक स्थिति कुछ अच्छी नहीं है जिसका प्रमुख कारण है खेती की अनुपयुक्तता। इसका अर्थ है - 60 से 80 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि पर सिंचाई के साधनों की कमी, खेती योग्य भूमि का ढालू होना, समुचित खाद एवं उन्नत किस्म के बीजों का समय पर उपलब्ध न होना, वर्षा की अनियमितता आदि। सामान्यत: सूखी अवस्थाओं में सीमान्त बारानी क्षेत्रों में प्राय: कम, अस्थिर और लाभहीन उत्पादन होता है। इस प्रकार की भूमि की उत्पादन क्षमता की किसी-न-किसी तरह से ह्रास होता है। जनसंख्या वृद्धि के कारण ऐसे भूमि को उपयोग में लाना बहुत आवश्यक हो गया है। पेड़ों की निरन्तर कटाई से वानस्पतिक परत में कमी हो रही है जिससे भूमि का कटाव होता है जिसके कारण पर्यावरण का संतुलन भी बिगड़ रहा है।

बुंदेलखंड में झांसी, ललितपुर, हमीरपुर, बांदा तथा जालौन जिले आते हैं। इनका कुल क्षेत्रफल लगभग 29.6 लाख हेक्टेयर है परन्तु केवल 18.9 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर ही खेती की जाती है। जबकि बुंदेलखंड में कुल 1.73 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर उद्यान लगे हुए हैं। जल संसाधनों की कमी, कम एवं असामयिक वर्षा, मिट्टी का उपयुक्त न होना, अत्यधिक ढालू एवं पथरीला होने से यह क्षेत्र बहुत पिछड़ा हुआ है।

बुंदेलखंड में मुख्यत: दो प्रकार की मिट्टी पाई जाती है।


1- काली मिट्टी :
काली मिट्टी में दो प्रमुख वर्ग की मिट्टी पाई जाती है - काबर और मार। इस तरह की मिट्टी में जल धारण क्षमता बहुत अधिक है और उत्पादन क्षमता भी अत्यधिक है।

2- लाल मिट्टी :
इस मिट्टी को राकर और परबा दो समूह में विभक्त किया जा सकता है। इस मिट्टी में जल धारण क्षमता एवं उत्पादन क्षमता बहुत कम है। इस मिट्टी की वृहद संरचना के कारण इसमें भू-कटाव बहुत अधिक होता है इसलिए कम ढाल पर भी भूमि एवं जल का संरक्षण आवश्यक है। शुष्क क्षेत्रों में पथरीली, बंजर तथा पठारों आदि पर फलदार वृक्ष जैसे नींबू, बेर, आंवला, अमरूद, अनार आदि आसानी से उगाए जा सकते हैं क्योंकि इनकी जल मांग भी अधिक नहीं होती। इस तरह की परती भूमि को उपयोग में लाने के लिए उद्यानीकरण आवश्यक है। ढालू भूमि पर मृदा एवं जल संरक्षण की उपयुक्त विधियाँ अपनाकर ऐसी भूमि का समुचित उपयोग ही नहीं होगा बल्कि फलों की समुचित पैदावार करके बुंदेलखंड क्षेत्र फलों को पैदा करने में आत्मनिर्भर भी बनेगा। बागों में मृदा व जल संरक्षण को मुख्यत: दो भागों में बांटा जा सकता है। यांत्रिक विधि द्वारा मृदा व जल संरक्षण ऊबड़-खाबड़ एवं पथरीली भूमि का यथा-संभव समतलीकरण करना आवश्यक होता है क्योंकि वर्षा जल अपने साथ पर्याप्त मात्रा में मिट्टी आदि को बहा ले जाता है। ढाल की प्रतिशत की अपेक्षा जल दो गुणी गति से बहता है जिससे ऊपरी सतह को बहा ले जाने के साथ-साथ खेतों में बड़े-बड़े खड्ढे आदि बन जाते हैं। कभी-कभी तो यह इतना विकराल रूप धारण कर लेता है कि बागों के पेड़-पौधे आदि गिर जाते हैं। हालांकि बुंदेलखंड क्षेत्र में पथरीली जमीन होने से समतलीकरण समान रूप से नहीं हो पाता।

मेड़बन्दी करना


समतलीकरण के पश्चात यह बहुत ही आवश्यक है कि खेत के चारों ओर मजबूत मेंड़ बना दी जाए ताकि भूक्षरण रोका जा सके। मेड़ों के परिणामस्वरूप वर्षा जल भूमि के अन्दर अधिक-से-अधिक मात्रा में चला जाता है और इस नमी का प्रयोग पौधे की गर्मी में आसानी से कर सकते हैं। मेड़बन्दी से न केवल वर्षा जल को रोकने में सफलता मिलती है बल्कि बुंदेलखंड में प्रचलित छुट्टा जानवरों की प्रथा का समाधान भी इस विधि द्वारा काफी हद तक किया जा सकता है। मेड़ों के ऊपर बाड़ कांटेदार पौधों, फसलों व पेड़ों को उगा कर उन्हें छुट्टा जानवरों से बचाया जा सकता है।

विभिन्न तरह की ढाल पर समतलीकरण एवं मेंड़बन्दी पर लागत व्यय
ढाल प्रतिशत
पुरानी विधि द्वारा लागत 
(रू. प्रति हेक्ट.)
नई तकनीक द्वारा लागत (रू. प्रति हेक्ट.)
बचत/लाभ
(रू. प्रति हेक्ट.)

1.                                     
4319
3504 
815
2.                                     
5124
4809
815
3.                                    
5887 
5072
815


पहाड़ों के निचले छोर पर विभिन्न नालियों को बनाना अत्यन्त आवश्यक है जिससे कि वर्षा का एकत्रित जल बिना कटाव किए वॉटरशेड के निचले भाग में पहुंच सके। साथ ही साथ ढाल की विपरीत दिशा में बहाव होने से वर्षा जल अधिक देर तक नाली में रहता है और जमीन पर्याप्त मात्रा में उसे सोख लेती है। इससे सूखे एवं जल के नष्ट होने, दोनों समस्याओं का समाधान आसानी से हो सकता है।

कंटूर पर स्टेगर्ड ट्रेंचेज बनाना/खोदना


जो स्थान बहुत अधिक ढलान वाले हैं और उन्हे समतल करना भी आसान नहीं है, वहां कंटूर पर स्टेगर्ड तरीके से गड्ढे खोदने चाहिए। इन गड्ढों के निचले हिस्से में फलदार वृक्षों का रोपण करना चाहिए। इस विधि से निम्नलिखित लाभ होते हैं:-

1. अधिक ढाल वाली पहाड़ी छोटे-छोटे हिस्सों में बट जाती है तथा स्टेगर्ड ट्रेंचेज लघु संचयन पांड का काम करती हैं।
2. खोदी हुई मिट्टी गड्ढे के निचले हिस्से पर रखने से उसमें काफी समय तक नमी बनी रहती है जो पौधों को मिलती है।
3. स्टेगर्ड ट्रेंचेज खुद जाने से बरसात का पानी तीव्र गति से बहने की बजाय मंद गति से बहता है जिससे मृदा का कटाव रूक जाता है और जल का संरक्षण होता है।
4. इस प्रकार की सॉयल वर्किंग विधि से पौधे लगाने से उनकी तीव्र वृद्धि होती है जो कि ढालू पहाड़ियों पर वानस्पतिक रोक (वेजिटेटिव बैरियर) का काम करती हैं तथा मृदा के कटाव को स्थाई रूप से रोकती है।

बुंदेलखंड में कम वर्षा तथा उसकी अनियमितता को देखते हुए वर्षा जल को तालाब अथवा गड्ढों में इकट्ठा करने की प्रक्रिया को जल एकत्रीकरण कहते हैं। एकत्रित हुए जल का प्रयोग सूखे के समय अथवा रबी के मौसम में किया जा सकता है। एक जलाशय में 6 हे.मी. जल इकट्ठा करके लगभग 10-15 हेक्टेयर भूमि में कम से कम दो सिंचाईयां की जा सकती हैं। जल के बहाव पर नियन्त्रण करने के लिए नालियों में छोटे-छोटे बांध जैसे बना देने चाहिए। निचले स्थानों में जल इकट्ठा करने की विधि को 'सबमरजेंस बंधीज' कहते हैं। इस पद्धति द्वारा भूमि एवं जल संरक्षण के साथ-साथ जल इकट्ठा करके तथा उसका उचित समय में उपयोग करके कृषि उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है। इस विधि से फसलों में बरसात में इकट्ठे किए हुए जल के उपयोग से होने वाली उपज के अन्तर को नीचे तालिका मे दर्शाया गया है।

फसलों की उपज पर वर्षा जल के एकत्रीकरण एवं उसे उपयोग का प्रभाव
फसल
उपज (कुल/हेक्टेयर)

असिंचित
सिंचित
ज्वार
14.7
17.0
मक्का
22.7
30.4
अरहर
3.9
6.3


स्त्रोत : प्रोसीडिंग समर इंस्टिटयूट देहरादून, 1991 पृष्ठ 29

वानस्पतिक रोक (वेजिटेटिव बैरियर)


वानस्पतिक रोक द्वारा मृदा में वर्षा जल को रोकना एक आधुनिक विधि है। इसके अन्तर्गत मेड़ों के बगल व ऊपर घास लगाने से बहाव को कम किया जा सकता है। इससे भूमि की ऊपरी परत बहने से बच जाती है। मेड़ों पर लगी घास को काटकर पशुओं को खिलाया जा सकता है। इससे चारे के साथ-साथ मृदा एवं जल संरक्षण भी होता है। प्रयोगों के आधार पर यह तय हुआ है कि घासों की वानस्पतिक रोक मृदा एवं जल संरक्षण के लिए उपयुक्त पाई गई है।


कुल जल बहाव(मि.मी.)
जल बहाव का
रोक (प्रतिशत)
ऊपज (टन/हैक्ट.)
1- यांत्रिक विधि
58.6
46.1
---
2- सुबबूल 
67.8 
37.6
2.2
3- वीपिंग लब घास
79.1
27.2
0.62
4- खस घास
63.6
41.5 
0.84
5- बिना नियन्त्रण 
108.7
100.0
---


शस्य क्रियाओं द्वारा मृदा एवं जल संरक्षण


मिश्रित खेती
इस पद्धति में फलदार पौधों के साथ उपयुक्त फसलों को लगाने से न केवल भूमि का समुचित उपयोग होगा बल्कि भूमि कटाव भी कम होगा। क्योंकि शुरूआत के तीन चार वर्षों तक पेड़ों की वृद्धि की दर भी कम रहती है जिससे फसलों के ऊपर कोई बुरा प्रभाव भी नहीं पड़ेगा। इस पद्धति में कम समय में तैयार होने वाली फसलों एवं घासों को उगाया जा सकता है। जैसा कि तालिका में दर्शाया गया है परती रहने से 11.7 टन प्रति हेक्टेयर मृदा बह जाती है एवं 200.7 मि.मी. जल हानि होती है। कुल वर्षा की हानि का प्रतिशत भी परती पड़ी भूमि में अधिक है। घास उगाने से यह सभी हानियां कम होती है।

भूमि की विभिन्न फसल पद्धति में भूमि एवं जल का नुकसान
फसल पद्धति
मृदा हानि
(टन/हेक्ट.)
जल हानि
(मि.मी.)
कुल वर्षा की
(प्रतिशत)
घास (डाइकेंथियम एनुलेटम)
0.11
12.26
1.5

उर्द-कुसुम 
6.43
150.45
19.0
सोयाबीन कुसुम
7.94
215.90
23.2
लोबिया-कुसुम
2.39
76.70
10.4
ज्वार-अरहर
3.62
220.45
16.6 
परती
11.68
220.69
27.1


स्त्रोत : प्रोसीडिंग समर इंस्टिटयूट देहरादून, 1991 पृष्ठ 180

सह फसल पद्धति


इस पद्धति के अन्तर्गत फलदार पेड़ों को फसलों के साथ उगाने से न केवल भूमि एवं जल संरक्षण होगा बल्कि खाली पड़ी भूमि का भी सदुपयोग होगा। बुंदेलखंड में जहां सिंचाई संसाधनों की कमी है वहां सूखा सहन करने वाली फसलों को, कम समय में पकने वाली चारे की फसलों को सह फसल पद्धति से फल, चारा, ईंधन एवं ऊन प्राप्त किया जा सकता है। साथ ही शुरू से कुछ सालों तक भूमि का उपयोग करके किसानों की आमदनी को भी बढ़ाया जा सकता है।

फलदार पेड़ पौधे
फसल
1
2
बेर/आंवला/अमरूद
खरीफ में ज्वार, मक्का, चरी, लोबिया की सह फसल।
बेर/आंवला/अमरूद
रबी में चना, मसूर, जई, सरसों आदि।
नींबू प्रजाति 
 घासें, दलहनी घासें, ज्वार, लोबिया, चरी, उर्द, मूंग, जौ आदि।


जलधारक रसायन


कुछ जलधारक रसायनों जैसे जलशक्ति, एग्रोलाइट-400, ग्रोसोक आदि का प्रयोग खेती में करने से भूमि की जल धारण क्षमता बढ़ जाती है जिससे पौधों को उनकी आवश्यकतानुसार जल मिलता रहता है। इन रसायनों को रिफिल मिक्चर में मिलाकर फलदार वृक्षों के रोपण के समय गड्ढों में डालने से उनमें पौधों के लिए काफी समय तक जल संरक्षित रहता है। इस प्रकार के जल धारक रसायनों के प्रयोग से निम्न लाभ होते हैं-

1. भूमि की जल धारण क्षमता में सुधार होता है तथा पौधों को लम्बे समय तक जल उपलब्ध रहता है।
2. इन रसायनों के प्रयोग से जल पूर्ति क्षमता में भी सुधार होता है।
3. मृदा की भौतिक एवं रासायनिक क्षमता में भी सुधार होता है।
4. इनका प्रयोग 'सीड पलटिंग' में भी हो सकता है।

पट्टीदार खेती


इस विधि में ढलान के विपरीत पतली-पतली पट्टी बना ली जाती है और सबसे ऊपर वाली पट्टी में दलहनी फसलें जैसे लोबिया, मोठ, कुल्थी, सेम तथा घासें (कटाव नियंत्रक फसलें) लगाई जाती हैं। दूसरी पट्टी में लाईन में बोई जानें वाली फसलें जैसे मक्का, ज्वार, बाजरा और अरहर आदि (कटाव उकसान वाली फसलें) लगानी चाहिए। एक के बाद एक दोनों तरह की फसलों को लगाने से निम्नलिखित लाभ होते हैं –

1. वर्षा जल के साथ बहने वाली मिट्टी कटाव नियंत्रक फसलों वाली पट्टी में रूक जाती है।
2. इस प्रकार बरसात का जल अपेक्षाकृत धीमी गति से छन-छन कर निचली जगहों में बिना कटाव किए जाता है।
3. भूमि को जल सोखने की अधिक समय मिलता है जिससे फसलों के लिए आवश्यक जल भूमि में संरक्षित हो जाता है।
4. खेतों के कोनों पर घासों व फलदार पौधों की बफर स्ट्रिप लगान से भूमि का कटाव रूक जाता है।

घासबाड़ी (ले क्रॉपिंग)


घासों तथा फलीदार फसलों को दाने वाली फसलों के साथ क्रमबद्ध रूप से लम्बे समय तक एक ही खेत में उगाने को घासबाड़ी कहते हैं। इसका मुख्य उद्देश्य चारे के साथ-साथ अन्न प्राप्त करना है। जिसमें अन्न चारा समस्या का समाधान एक ही पद्धति द्वारा किया जा सकता है। इसमें घासों तथा दलहनी घासों का मिश्रण भूमि को पूर्णत: आच्छादित किए रहता है। इससे वर्षा की बूंदों का सीधा प्रभाव भूमि पर नहीं पड़ता और भूमि को कटाव से बचाया जा सकता है। घासों की जड़ें मृदा कणों को मजबूती से बांधे रखती है जिससे कटाव कम होता है और साथ ही इन जड़ों में भूमि में जीवांश भी प्राप्त होते हैं।

वीथी शस्योत्पादन (ऐ ले क्रॉपिंग)


वीथी शस्योत्पादन से भोजन, ईंधन, खाद, चारा आदि की पूर्ति होती है क्योंकि इस पद्धति में वृक्षों अथवा झाड़ियों को बाद में बनाई गई वीथियों में लगाया जाता है। शुष्क/बारानी क्षेत्रों में कृषि उत्पादन में स्थिरता एवं आर्थिक स्थिति में सुधार के लिए ''पेड़ों के साथ फसल'' कृषि पद्धति अत्युत्तम रहती है। इस पद्धति में पौधों की कटाई/छंटाई करके हरे चारे के रूप में पशुओं का खिलाते हैं जिससे फसलों की वृद्धि पर कोई कुप्रभाव नहीं पड़ता तथा भूमि में उपस्थित पोषक तत्वों, नमी, रोशनी आदि से भी कोई प्रतिस्पर्धा नहीं होती। पेड़ों व झाड़ियों की पत्तियों सहित छोटी-छोटी टहनियों को अवरोध पर्त के रूप में प्रयोग करने से फसलों के लिए मृदा नमी संरक्षित होती है।

1. सुबबूल+ज्वार/बाजरा/उर्द/मूंग/अरहर/घासें एवं दलहनी घासें।
2. युकेलिप्टस+ज्वार/लोबिया/अरहर/घासें/जौं/जई/चना।
3. बहुवर्षीय अरहर+मुंगफली/सोयाबीन/ज्चार/ बाजरा/सरसों/जौ/चना/मसूर/अलसी।

ढाल के अनुसार भूमि उपयोग


कुछ महत्वपूर्ण वैज्ञानिक विधियों द्वारा ढलान वाली भूमियों का सही मूल्यांकन करके एवं उपयुक्त विधियों द्वारा जल एकत्रीकरण से भूमि के अन्दर नमी के स्तर को बदला जा सकता है। भूमि की निचली सतह में जल उपस्थिति एवं पोषक तत्वों को भूमि में संरक्षित किया जा सकता है। ढलवां पहाड़ी युक्त क्षेत्रों में आसानी से प्रयोग में लाए जाने वाले कुछ सुझाव इस तरह हैं।

ऊपरी सतह (चोटी पर)


इस सतह पर मृदा एवं जल संरक्षण (पत्थरों की मेड़, गड्ढे खोदना) जल बहाव की दिशा में परिवर्तन (ढाल के विपरीत दिशा में बांध/नालियां) विभिन्न कृषि क्रियाएं, समान ढाल पर गड्ढे खोदना, थाला बनाना/ पेडों को लगाना,यांत्रिक विधि से मृदा संरक्षण, वानस्पतिक विधि द्वारा मृदा संरक्षण तथा घास एवं फलीदार पौधों एवं पेड़ों का एक साथ रोपण आदि किया जा सकता है।

मध्यवर्ती सतह


इस सतह पर मुख्य रूप से मृदा में नमी का संरक्षण, विभिन्न कर्षण क्रियाएं, भूमि पर वानस्पतिक पर्त लगाना जल धारक रसायनों का उपयोग, उपयुक्त प्रजातियों का चुनाव, दाल वाली फसलें, तेल वाली फसलें, सब्जियां, अन्न चारा ईंधन पद्धति, कृषि वानिकी, वीथा शस्योत्पादन, घासबाड़ी एवं चारा वाली फसलों का फसल पद्धति में समावेश आदि।

निचली परत


निचली सतह में मुख्यत: चरागाह का विकसित करना, संसाधनों का समुचित उपयोग, चरागाह एवं उनकी चराई,बांधों एवं जल संसाधनों के किनारों को सुदृढ़ करना आदि कार्य किए जाते हैं।

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