Manik Ji शीतलहर !
नोचती खरोचती सी दिखी
शीतलहर बस्ती में
तब भी खेतिहर डटे रहे
मजदूर मिले खेतों में जूते हुए
पाला पड़ा जब मेढ़ों पर
सडकों पर कोहरा छाया था
फसलें बेचारी कांपती रही
कोसती रही छिटपुट जोतों का बंटवारा
दुबका रहा दोपहर तलक
बादलों की ओट में कहीं सूरज
न पेड़ हिले न पत्ते गिरे
न बाहर निकले ढोर
ग्रहण लगा था आजु-बाजू
सबकुछ ठिठुरा दिनभर
बूढ़े गंठड़ी से दुबके दिखे रजाइयों में
बस्ती के बच्चे मिले उस रोज़
पुश्तैनी गंध सने कम्बलों के हवाले
उग आई थी ठण्ड की बैलें एकाएक
हर झोंपड़े के आँगन में
पता नहीं कब पसरी
चढ़ गई छत तक जा बैठी
कान खुजाते कुत्ते भी थे
उस आलम के हिस्से में
कुछ धूप ढूँढते गधे दिखे
पिल्लै रोते रहे दिनभर
दिल न पसीजा शीतलहर का
तनिक शर्म न आई उसे
पहले ही ठंडा जीवन था जिनका
बस्ती का राम सहारा था
शहर में लूट ली जाती वैसी
योजनाओं की गर्मी यहाँ कहाँ
दमखम वाले युवा तक काँप उठे
अलाव तापते मिले
दुशालों में लिपटे पूरे
इनकी सर्दी कौन हरेगा
अब कौन ये मौत मरेगा
व्याकुल मन में प्रश्न बड़े हैं
कुछ उलझे कुछ आतुर
कैसे भूलूँ उस दिन को
बहुत से अनुत्तरित प्रश्नों के साथ
जब बस्ती में घूस आई शीतलहर
1 Comments:
THANKS FOR SHARING BUT YOU SHOULDGIVE PROPER LINKS OF THE WRITER
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