Monday, November 01, 2010

पहाड़ों में है पानी खींचने की एक्यूप्रेसर सोंच

  • पृथ्वी पर मौजूद वन, वनस्पतियों, जंगल में है खारे पानी को मीठा करने की प्रवृत्ति।
  • बुन्देलखण्ड में विन्ध्य पर्वत माला में छिपे हैं हीरा, सोना, ग्रेनाइट व लौह अयस्क के भण्डार।
हिमांचल प्रदेश में बीते तीस वर्षों से जल प्रबन्धन व जैविक कृषि पर अध्ययन कर रहे उत्तरी शोध संस्थान के डायरेक्टर नरशष चैहान बताते हैं कि हमारे यहां पहाड़ों की देन है पानी कहने का आशय यह है कि धरती अर्थात वसुन्धरा के चारों तरफ समुद्र का जल है जो कि बेहद खारा है धरती पर लगी दुर्लभ वनस्पतियां, पेड़, औषधीय वृक्ष ही इस खारे पानी को फिल्टर (शोधित) करने के पश्चात् जल को पीने योग्य बनाती हैं पहाड़ जो हजारांे फुट गहरे धरती के व समुद्र के जल को पम्प कर एक्यूप्रेसर के दबाव की तरह जलस्तर को ऊपर उठाकर पानी के वाटर लेबिल को बढ़ाते हैं जिससे कि लोगों को पीने का पानी मुहैया होता है। उनका कहना है कि आप देख सकते हैं जहां पर किसी भी प्रकार का खनन, प्रकृति के संसाधनों का दोहन जारी है वहां पर जलस्तर डाउन स्ट्रीम में चला गया है।
राजस्थान के सीकर जनपद के कृषि वैज्ञानिक जगदीष प्रसाद पारिख जिन्हे देष विदेष में गोभी वाला के नाम से भी जाना जाता है ने स्पष्ट तौर पर अपने चालीस वर्षों के अनुभव के हवाले से कहा है कि पूरे राजस्थान में बुन्देलखण्ड की तरह पहाड़ों के जाल हैं यहां के पहाड़ों में भी विन्ध्य पर्वत माला की तरह ग्रेनाइट की परतें बीस से पचीस मीटर के बाद गहराई में जाने पर मिलती हैं जो कि कहीं कहीं पर दो से तीन सौ मीटर तक मोटी हैं। भूकम्प रोधी क्षमता को बढ़ाने का कार्य ये ग्रेनाइट की परतें ही करती हैं चूंकि बुन्देलखण्ड में सर्वाधिक काली मिट्टी है और ग्रेनाइट की चट्टानें काली मिट्टी की वजह से यहां बनी ईमारतोें में दरार तो ला सकती हैं लेकिन वह कभी भरभरा कर गिर नहीं सकतीं।
बुन्देलखण्ड के झांसी, ललितपुर, महोबा व बांदा जनपद में ग्रेनाइट के पत्थर व लौह अयस्क के भण्डारांे को छतरपुर में देखा जा सकता है अपने गर्भ में यहां हीरा, सोना, प्लेटिनम, पायरोप्लाइट, डायसफोर व लौह अयस्क के भण्डार छुपे हैं स्टील की तरह होने की वजह से यह न तो खराब होते हैं और न ही इनमें जंग ही लगती है।
सम्राट अषोक के जंगरोधी लौह स्तम्भ को छतरपुर की देन ही माना जायेगा लेकिन उत्तर प्रदेष व मध्य प्रदेष के माइनिंग विभाग के पास लौह अयस्क के किसी भी प्रकार का रिकार्ड मौजूद नहीं है। गौरतलब है कि बुन्देलखण्ड में लोहे का प्रयोग स्थानीय स्तर पर शताब्दियों से किया जाता रहा है। चाहें वह छठवीं शताब्दी में बना अषोक के निर्देष पर जंगरोधी लौह स्तम्भ हो या फिर अंग्रेजों के शासन में बनी तोप की बेयरिंग सभी में बखूबी इसका उपयोग किया गया है। साउथ ऐषियन एसोसिएषन आॅफ इकोनोमिक जियोलाजिस्ट के अध्यक्ष प्रोफेसर के0एल0 राय ने इस सन्दर्भ में कहा है कि जनपद छतरपुर में स्लैग (लौह अयस्क से लोहा निकालने के बाद प्राप्त कूड़ा) के बड़े बड़े टीलों को यहां देखा जा सकता है जो इस बात के प्रमाण हैं कि यहां के पहाड़ों में लौह अयस्क भी है।
 नरसिंगपुर जनपद के लोहागढ़, तेंदूखेड़ा कस्बा के लोहार बस्तियों के बीच रहने वाले लोगों के घरों में आज भी इसके पुखता सबूत हैं। यहां कुछ वर्षों से लगातार जारी हरे भरे जंगल, खनिज सम्पदा, विषाल पर्वत श्रेणियां व ग्रेनाइट की परतों को अवैध खनन उद्योग के चलते नष्ट किया जा रहा है और साथ ही ट्यूबेल, हैण्डपम्पों की बाढ़ से रहा सहा जमीन का पानी भी खींचकर बुन्देलखण्ड को बंजर बनाने की मुहिम परम्परागत रूप से चली आ रही है। सैकड़ों वर्षों की हरियाली व पहाड़ों में छुपी पानी की सोंच को सामाजिक कार्यकर्ता आषीष सागर ने बताते हुए कहा है कि बांदा जनपद के दिवंगत कवि डाॅ0 केदारनाथ अग्रवाल की कविता ‘‘पानी को निहारता पत्थर’’ के माध्यम से भी समझा जा सकता है जिन्होने कभी केन के तटों में बैठकर कर्णवती और पानी के अन्तर सम्बन्धों को न सिर्फ आम लोगों की जीवन प्रत्याषा का अभिन्न हिस्सा बतलाया है वरन बुन्देलखण्ड में स्थायी जल प्रबन्धन के प्रकल्प के रूप में भी वर्षों पहले खनन उद्योग को पूरी तरह से बुन्देलखण्ड के लिये रेगिस्तान बनाने की तयषुदा साजिष ही करार दिया है।
कार्यशाला से सभार साराषं
आशीष सागर - प्रवास

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